भीड़
बस, इस भीड़ में कहीं खो जाऊँ
अपने वज़ूद को तकिये के नीचे रख, सो जाऊँ
जहाँ हमारी परछाईं, खुदको देखकर चौंके
और जब हमारी तक़दीर हमें ढूँढने निकले,
तब दुआ करना, मैं कहीं उसे मिल ना जाऊँ
बस, इस भीड़ में कहीं खो जाऊँ
हवा मैं उस खुशबु जैसे घुल जाऊँ
रोशनी कि चादर ओढ़े कहीं सिमट जाऊँ
बादल को उसके सवाल का जवाब देता आऊँ
वो बारीश की बूंदे नहीं, हमारे आँसू थे
आज कौन ज्यादा बरसता है, चलो शर्त लगाऊँ
बस, इस भीड़ में कहीं खो जाऊँ ...
शायद एक आवाज में ही लौट आऊँ
बीते हुए कल को कहीं दूर छोड़ आऊँ
अरे, कोई बुलाने वाला तो हो
अभी के अभी, उल्टे पैर दौड़ आऊँ
मगर एक खौफ़ भी है
कहीं जिंदगी के दलदल में वापस फंस ना जाऊँ
जो हाथ दिखा था, वो इस दलदल से बचाने के लिए था,
या डुबाने के लिये था पता नहीं,
बेहतर है,
इस भीड़ में ही कहीं खो जाऊँ ...
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