मन की व्यथा

जब कोई बात समझ न आए 
बैठे बैठे कोई अजीब-सा विचार सताये 
जब बेवजह दिल घबराए 
तब रो देता हूँ 

पर रोने की आवाज न आए 
कहीं लोग मुझे कमजोर न बुलाए 
और अश्रु अपने आप सुख जाए 
तब थोड़ा हँस देता हूँ 

कभी - कभी मैं खुद भूल जाता हूँ 
किस परिस्थिति में, क्या करना है 
किसे पूछें, कौन बताएगा 
कभी हँसना हैं, कभी रोना हैं

काश कोई पुस्तक होती, 
उस गहरे राज़ से पर्दा हटाती 
कि अखिर क्यों ऐसा होता हैं 
हमारा मन अपना अस्तित्व भूल जाता हैं 
बस बेतहाशा नैनों कि खिड़की से 
टूकूर  टूकूर लोगों के चहरे देखता हैं 
उन्हें पढ़ने कि कोशिश करता हैं 
कुछ समझ आए, और प्रतिक्रिया देनी हो 
तभी एकाएक सुन्न हो जाता हैं 

आज मन अपनी क़ाबिलियत पर शक कर रहा हैं 
अंदर ही अंदर खुदको कोस रहा हैं 
अगर बेवजह हँस दिए या रो दिए, 
तो depression कि उपमा दी जायेगी 
इसीलिए शयद खुद को दूसरों के नजरिए से देख रहा हैं 

क्या सही, क्या गलत 
Well depends, क्या है तुम्हारी फ़ितरत 

छोड़ों, आज मन को एक दिन की छुट्टी देते हैं 
जी भरकर हसने, रोने देते हैं 
और कुछ ना करना हो,
तो कुछ भी न करने की इजाज़त देते हैं 
पंख लगा लो मन, 
आज जहाँ चाहो, वहाँ बेखौफ उड़ने देते हैं 
आज तुम्हें एक बार फ़िर से जीने देते हैं 

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