एक अनोखी कविता
ज़ुबान ने कहा विचारों को शब्द में क्यों पिरोहे जब कविता जस्बातों से बनती है पर दिल बोल उठा "हम अपनी ज़ुबाँ क्यों खोले ?" जब कुछ बोलते ही पर्वत गिर पड़ते है, और नदियां सुख जाती है आंखों ने कहा तुम कुछ मत बोलो तुम्हारा काम हम करेंगे उन्हें थोड़ी पता था, शुरुआत होते ही आसुंओ के झरने बहेंगे हाथ कैसे पीछे रहता अपने इशारो से समजता अरे, लोग इशारे समझते तो कब का काम बन जाता आखिर में साँसे चलने लगी थोड़ी और तेज़, बिना बोले, कविता सुनाने लगी जिसमे कोई शब्द नहीं थे बस एक एह्सास देने लगी थोड़ा बोझ कम हुआ थोड़ा हल्का महसूस हुआ जो कोई न कर पाया मेरी साँसों ने कर दिखाया